Vidhya Pracharni Sabha

कान्यकुब्ज समाज इंदौर के, 101 वर्षों के इतिहास की संक्षिप्त बानगी

“कल कल ध्वनि से कुलस्थ कुंजो की निनादित कालिंदी के पावन कछारो से चलकर कान्यकुब्ज बंधू इस सश्य श्यामली मालवा भूमि के हृदय बिंदु इंदौर में कब और क्यों आये? इस प्रशन का उत्तर देना आज असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है । इंदौर नगर और कान्यकुब्ज जाति – इन दोनों का संबंध होलकर राज्य की स्थापना के समय से तथा उससे भी पूर्व से चला आ रहा है।”

रेवा के तट पे स्थित देवी अहिल्या की पुण्य श्लोक पवित्र महिष्मती नगरी में आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र का शाश्त्रार्थ उपरोक्त कथन के उदाहरण है । इस शास्त्रार्थ के पश्चात ही देवी आहिल्या ने महेश्वर को अपनी राजधानी बनाया लकर राज्य में कान्यकुब्ज सदा से है शासन के गौरवपूर्ण अंग और प्रमुख नागरिक रहे है। विद्वता, वीरता, राजनीतिज्ञता आदि अनेक गुणों से विभूषित कान्यकुब्ज न केवल होल्कर राज्य के, अपितु मध्यप्रदेश के निर्माण का भी स्तुत्य कार्य करते आ रहे है।

यहां यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा की श्री गयादीन दुबे की नियुक्ति इंदौर में हुजूर पायगा के नायब के पद पर की गई तथा उनके पुत्र भवानीसिंहजी दुबे होल्कर राज्य में सेना के जनरल व प्रधान सेनापति थे तथा इनके पुत्र दुर्गाप्रसाद दुबे भी होल्कर सेना में प्रधान सेनापति थे तथा इनकी वीरता के लिए इन्हें सर नोबत की उपाधि से सम्मानित किया गया था । इसी प्रकार श्री दुर्गाप्रसाद दुबे के भाई माधवप्रसाद दुबे होलकर आर्मी में कर्नल थे और इन्ही के एक भाई मेजर रामप्रसाद दुबे होलकर राज्य में प्रधानमंत्री थे। श्री दुर्गाप्रसाद दुबे के सुपुत्र श्री सुरेन्द्रनाथ दुबे कलेक्टर व विकास आयुक्त रहे तथा सुरेंद्रनाथ दुबे के सुपुत्र श्री शरदचंद्र दुबे जिलाधीश व इंदौर नगर]निगम के आयुक्त रहे ।

इसी प्रकार महाराजा शिवाजीराव होलकर के शासनकाल में रिसालदार मेजर ईश्वरीप्रसाद तिवारी ने टांटिया भील को समाप्त कर ब्रिटिश शासन द्वारा ओ.बी.ई. की उपाधि प्राप्त की थी तथा इनकी वीरता के लिए खंडवा का नंदगाँव जागीर में दे दिया गया था। श्री ईश्वरीप्रसाद तिवारी के पौत्र श्री महेशप्रसाद तिवारी भी इंदौर नगर निगम के आयुक्त रहे इन दोनों परिवार का संरक्षण इंदौर के कान्यकुब्ज बंधुओ को प्राप्त होता रहा ।

जुलाई 1914 ईसवी में चैत्र शुक्ल रामनवमी के पुण्य पर्व पर सर नोबत दुबे साहब के बगीचे में कान्यकुब्ज का प्रथम सम्मेलन हुआ और इसी अवसर पर श्री कान्यकुब्ज विद्या प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। यही से कान्यकुब्ज बंधुओ के सुद्र्ढ संगठन तथा उक्त सभा के जीवन का इतिहास प्रारम्भ होता है ।

इस प्रथम अधिवेशन के सभापति स्वर्गीय पं. पुरुषोत्तमजी अवस्थी जिला जज तथा प्रधानमंत्री कर्नल माधवप्रसादजी दुबे सर्वानुमति से निर्वाचित हुए थे । सन् 1918 में सभा का महत्वपूर्ण अधिवेशन स्वागताध्यक्ष ब्रिगेड मेजर श्री जगनाथप्रसादजी पांडे की अध्यक्षता में टाउन हॉल में संपन्न हुआ इस अधिवेशन में सभापति कर्नल माधवप्रसादजी दुबे एवं प्रधानमंत्री श्री महेशप्रसादजी तिवारी सर्वानुमति से निर्वाचित हुए।

कर्नल माधवप्रसादजी दुबे के सद्प्रयत्नो से सन् 1918 में सभा का स्थायी कोष एकत्रित किया गया । दि इंदौर को – ऑपरेटिव बैंक लिमिटेड में लगभग 4500 रुपए जमा किए गए। इन रुपयों के ब्याज से जाति के निर्धन एवं असहाय छात्रों की शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति देने का महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किया गया ।

सन् 1923 में मोतीमहल में सभा का अधिवेशन हुआ, जिसमें सभापति वैद्यराज खयालीरामजी द्विवेदी एवं प्रधानमंत्री श्री कालिकाप्रसाद शुक्ला निर्वाचित हुए। 25 दिसंबर 1925 को सभा के अधिवेशन में सभापति श्री सुरेंद्रनाथजी दुबे निर्वाचित हुए। किंतु भूतपूर्व सभापति व निर्वाचित सभापति के मध्य मतभेद उत्पन्न होने के कारण 6 माह बाद ही श्री सुरेंद्रनाथजी दुबे ने समाज हित में सभापति पद से त्याग पत्र दे दिया। त्यागपत्र के बाद श्री वैद्यराज खयालीरामजी द्विवेदी स्थानापन्न सभापति चुने गये । 31अप्रैल 1926 को साधारण सभा का अधिवेशन श्री सुरेंद्रनाथजी के खजूरी बाजार स्थित भवन में संपन्न हुआ। सभापति श्री शिवसेवकजी तिवारी एवं प्रधानमंत्री श्री सुरेंद्रनाथजी दुबे निर्वाचित किए गए । सभा का कार्य 5 वर्ष बाद पुनः सुचारू रूप से चलने लगा । इसी वर्ष सभा के उपमंत्री श्री मथुराप्रसादजी अवस्थी के अथक परिश्रमों से सभा का एक पुस्तकालय एवं वाचनालय स्थापित किया गया श्री सुरेंद्रनाथजी दुबे ने इस पुस्तकालय के लिए समस्त फर्नीचर प्रदान कर अपने विद्या प्रेम का परिचय दिया । सन् 1928 के वार्षिक अधिवेशन में वैद्यराज खयालीरामजी द्विवेदी सभापति के आसन पर पुनः आसीन हुए। तब से 13 अगस्त 1948 तक लगभग 20 वर्ष तक सभापति का भार अपने वहन किया। इस अवधि में प्रधानमंत्री के पद पर मेजर रामनारायणजी शुक्ला श्री मथुराप्रसादजी शुक्ला , श्री कालिकाप्रसादजी दीक्षित, श्री सूर्यनारायणजी वाजपेयी तथा श्री महावीरप्रसादजी शुक्ल समय – समय पर निर्वाचित होते रहे ।

26 अप्रैल 1929 को श्री कान्यकुब्ज विद्या’प्रचारिणी सभा रजिस्टर्ड हुई। सन् 1930 से बैंक में जमा स्थायी कोष पुनः प्रारम्भ कर दिया गया । जो आज तक निरंतर जारी है। सन् 1936 में सभा ने निश्चित किया की सभा का स्थायी कोष बैंक से निकालकर सभापति श्री खयालीरामजी द्विवेदी को इसलिए सौंप दिया जाये की वे 10 आना सैंकड़ा ब्याज पर उठा कर ब्याज भी आप सभा को देते रहे। यह व्यवस्था सन 1951 तक चलती रही । अंत में नवम्बर 1951 में सभा में अपना मूल धन वैध ख्यालीरामजी द्विवेदी से वापस ले लिया सन् 1948 को सभा का अधिवेशन समारोह पूर्वक मनाया गया जिसमे सर्वानुमित से सभापति रायसाहब श्री भगवान प्रसादजी तिवारी रिटायर्ड डी. आई. जी. तथा प्रधानमंत्री श्री महावीरप्रसादजी शुक्ला निर्वाचित हुए। 27 अगस्त 1948 को कार्यसमिति की बैठक में कान्यकुब्जों की जनगणना का कार्य प्रारम्भ किया गया और 3 माह के अंदर यह कार्य सम्पन किया गया। 26 सितम्बर 1948 को कार्यकारिणी समिति से अपनी बैठक में कान्यकुब्ज भवन निर्माण का महत्वपूर्ण प्रस्ताव स्वीकार किया गया तथा इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक भवन समिति का निर्माण किया गया । इसके संयोजक वैद्यराज श्री चंद्रशेखरजी द्विवेदी निर्वाचित किये गये 7 नवम्बर 1948 को साधारण सभा में इस समिति को मान्यता प्रदान की।

1 मई 1956 को मध्य भारत के तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. रविशंकरजी शुक्ला मुख्यमंत्री इंदौर पधारे सभा ने उनके स्वागत का गौरव प्राप्त किया । 12 अगस्त 1951 को सभा के अधिवेशन में सभापति मुन्तजिम बहादुर दीनदयालजी मिश्र सभापति तथा मंत्री श्री महावीरप्रसादजी शुक्ला चुने गए। भवन समिति के संयोजक पद पर वैद्य श्री चंद्रशेखरजी द्विवेदी को पुनः चुना गया।
5 जनवरी 1955 को भवन समिति ने कार्यकारिणी समिति का अनुमोदन प्राप्त कर 21 हजार 500 रुपयो में राजमोहल्ला इंदौर स्थित ब्लॉक नं. 12 पर बना हुआ मकान नं. 367 खरीदा।

सभा के जन्मदिन से ठीक 41 साल पश्च्यात रामनवमी के पुण्य पर्व पर सभा भवन का उद्घाटन समारोह श्री वैद्य ख्यालीरामजी द्विवेदी के करकमलो द्वारा सम्पन्न हुआ। अप्रैल 1956 को श्री कान्यकुब्ज विद्या प्रचारिणी सभा का भवन अंक श्री रमाशंकर मिश्र श्रीपत द्वारा 2, हुसैनगंज, लखनऊ से प्रकाशित किया गया उसके बाद सभा ने सिटी इम्प्रूव्हमेंट बोर्ड से सभा भवन से संल्गन मैदान की प्राप्ति हेतु कार्रवाई की। परिणामस्वरूप इम्प्रूव्हमेंट बोर्ड ने सभा को सभा भवन से संलग्न 14 हजार 600 वर्गफुट का विशाल मैदान केवल अप्सेट प्राइज 7,300 रूपए में प्रदान किया । इसी भूमि खंड पर 90 फीट लंबी इमारत का निर्माण किया गया । इस निर्माण कार्य में डॉ. शिवआधार शुक्ला, श्री महावीरप्रसादजी शुक्ल तथा वैद्य पं. चंद्रशेखरजी द्विवेदी की सेवाएँ स्तुत्य है। जिन महानुभावो ने उत्तक भवन के निर्माण में आर्थिक सहयोग प्रदान किया, उनके नामो का शिलालेख वह लगा हुआ है।

सन् 1958 में कृष्णपुरा स्थित भवन एवं राम मंदिर रामस्वरूपजी उर्फ घंटा पांडे ने सभा के हित में एक मृत्यु-पत्र लिखकर अर्पित किया । श्री पांडे की मृत्यु के पश्चात सभा के प्रधानमंत्री महावीरजी शुक्ला ने न्यायालय में प्रोबेट सर्टिफिकेट प्राप्त किया। इस कार्य के लिए समाज के वरिष्ठ श्री शम्भूप्रसादजी शुक्ल एडवोकेट ने भी विशेष प्रयास किये व निःशुल्क न्यायालयीन सेवा दी। सन् 1959 में श्रीमती पार्वती बाई बेवा रामप्रताबसिंह से छोटी ग्वालटोली नंबर 2 में स्थित माकन नं.72 सभा को दान में प्राप्त हुआ इस भवन की प्राप्ति में डॉ.सिद्धनाथजी वाजपेयी का उल्लेखनीय सहयोग रहा है । तीन सालो में डॉ. सिद्धनाथजी वाजपेयी सभापति, महावीरप्रसादजी शुक्ला प्रधानमंत्री व वैद्य चंद्रशेखरजी द्विवेदी कोषाध्यक्ष रहे।

सभापति पद पर समय-समय पर डॉ.शिवआधार शुक्ल, महावीरप्रसादजी शुक्ल, वैद्यराज चंद्रशेखरजी द्विवेदी, श्री लक्ष्मीशंकरजी शुक्ला, श्री शिवनाथजी मिश्रा, डॉ. महाबली तिवारी, श्री शिवदुलारेजी दुबे,डॉ. सी.पी. तिवारी, विष्णुप्रसाद शुक्ला बड़े भैया निर्वाचित होते रहे। प्रधानमंत्री के पद पर श्री बजरंग प्रसादजी मिश्रा, रमेशचंद्र पांडे, सहदेव बाजपेयी, कैलाशचन्द्र शुक्ला, डॉ. ए. के. मिश्रा एवं उमाशंकर अग्निहोत्री, अवधेश शुक्ला, स्वयंप्रकाश शुक्ल, सुरेश द्विवेदी, डॉ. जे. के. तिवारी और ओंकार पांडे प्रधानमंत्री रहे।

सभा से शासन की स्कीम नं. 54 में करीब दो एकड़ जमीन का प्लॉट विद्यालय के निर्माण के लिए क्रय किया गया। इस कार्य में पं.भगवती प्रसाद मिश्रा, डॉ. सी.पी. तिवारी, उमाशंकर अग्निहोत्री ने सुरेश सेठ का सहयोग प्राप्त किया पं.श्री शिवदुलारेजी दुबे के सभापतित्व में दो महत्वपूर्ण काम किये गए एक समाज की जनगणना तथा दूसरा तथा हीरक जयंती महोत्सव ।
डॉ. सी.पी. तिवारी के सभापतित्व एवं उमाशंकर अग्निहोत्री के प्रधानमंत्री काल में अनेक रचानात्मक कार्य हुए । पं.स्वयंप्रकाश शुक्ला संयुक्त सचिव के रूप में प्रधानमंत्री की पहली पसंद थे, वहीं द्विवेदीजी सभापति के पसंदीदा थे द्विवेदीजी की वाकपटुता क्र सभी कायल थे अतः कमेटी ने सभा का हीरक जयंती महोत्सव पं. सुरेशचन्द्र द्विवेदी के संयोजकत्व में मनाने का निर्णय लिया। यह निर्णय काफी सटीक रहा। सुरेशचन्द्र द्विवेदी सही मायने में रोल मॉडल बन उभरे आपका मंच संचालन अदभुत था।

इसी कार्यकाल में जनगणना-आजीवन सदस्यता अभियान से समाज को जोड़ने का कार्य, सामूहिक उपनयन संस्कार एवं स्मारिका प्रकाशन का कार्य प्रशंसीय रहा । सामूहिक उपनयन संस्कार समाज का अब तक का प्रथम आयोजन रहा । इनके संयोजक पं.स्वयंप्रकाश शुक्ला थे प्रकाण्ड विद्वान ज्योतिषाचार्य पं.जुगलकिशोर शास्त्री के आचार्यत्त्व में 31 बटुको का विधि सम्मत उपनयन संस्कार 31 विद्वान पंडितो की टीम में सम्पन्न कराया । पश्चात हाथी-घोड़े-बग्घी-तांगो के काफिले के साथ 200 से अधिक समाजजनों ने शामिल हो शोभायात्रा को आंदनमयी व सफल बनाया।

समाज की प्रथम स्मारिका का सम्पादक मंडल भी इस कार्यकाल की उपलब्धि थी डॉ. ए.पी. तिवारी, स्वयंप्रकाश शुक्ला, पी.के. शुक्ला एडवोकेट एवं प्रधानमंत्री उमाशंकर अग्निहोत्री के रूप में संपादक मंडल ने प्रथम स्मारिका 5 सितम्बर 1986 को प्रकाशित की थी।

सभा की हीरक जयंती मनाने हेतु हीरक जयंती समिति के संयोजक श्री सुरेशचन्द्र द्विवेदी एडवोकेट थे । इसमें खुले अधिवेशन, महिला सम्मेलन, दहेज़ विरोधी परिसंवाद के अतिरिक्त हजारो स्त्री-पुरषों ने भोजन किया। प्रसिद्ध कवि श्री वीरेंद्र मिश्र मुख्य अतिथि के रूप में सम्मिलित हुए स्वजातीय गरीब कन्याओ के विवाह हेतु एक स्थायी कोष निर्मित किया गया। सन् 1983-84 में नविन कार्यकारिणी का निर्वाचन हुआ, जिसमे सभापति के स्थान पर डॉ. सी. पी.तिवारी और प्रधानमंत्री के पद पर श्री उमाशंकर अग्निहोत्री एडवोकेट निर्वाचित किये गए। इस कार्यकारिणी की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि राजमोहल्ला स्थित सभाग्रह की प्रथम मंजिल में विवाह- भवन का निर्माण व विवाह उपयोगी अन्य सुविधाओ की व्यवस्था करना है। अनेक रचनात्मक कार्यक्रमों, सामुहिक उपनयन, परिचय सम्मेलन, 4 /6 स्थित भवन की मरम्मत,जनगणना,आजीवन सदस्यता आदि रहे ।

1989 से 1991 के कार्यकाल में सभापति विष्णुप्रसाद शुक्ला एवं प्रधानमंत्री पं.स्वयंप्रकाश शुक्ला की जोड़ी ने कार्यकारिणी में युवाओ के साथ बुजुर्गो का तालमेल बनाकर निम्नांकित नए प्रयोग संचालित किये-
प्रधानमंत्री कार्यकाल एवं आंगतुक कक्ष की व्यवस्था, आजीवन सदयस्ता अभियान का गंभीरता से संचालन, 361 आजीवन सदयस्ता बनाने का श्रेय इस जोड़ी को जाता है उल्लेखनीय है की 1914 में रजिस्टर्ड संस्था का 1983 तक कोई आजीवन सदस्यता ही नहीं था। प्रथम 15 सदस्यो में इस जोड़ी के नाम दर्ज है परिचय सम्मेलन की शुरुआत, जनगणना कार्य, सामूहिक विवाह, परशुराम जयंती, युवा परिषद का पृथक से गठन, वाचनायल का पुनः संचालन, हाईस्कूल की मान्यता, स्थापना व संचालन, बुजुर्गो का सम्मान, आजीवन सदयस्ता प्रमाण-पत्र वितरण, 4 /6 स्थित भवन का रंगरोगन व चढाव के पास गेट लगाकर भवन दो पार्टीयो आवंटन की सुविधा, किराया बढ़ोत्तरी-पुराने किराएदारों को बुलाकर बढ़ोत्तरी हेतु सहमत किया, 21 नव नियुक्तियां, कोचिंग क्लासेस का रात्रिकालीन संचालन जैसे अनेक रचनात्मक कार्य किए।

सुरेशचन्द्र द्विवेदी सर्वाधिक लंबी पारी खेलने वाले सिद्ध हुए। आपने सभापतिजी के साथ अनेक रचनात्मक कार्यों,नवनिर्माण, संगठन की सुदृढ़ता, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का संचालन के अतिरिक्त देशभर के आयोजनो में सभापतिजी एवं कार्यकारिणी के सदस्यो के साथ प्रतिनिधित्व किया एवं संस्था का गौरव बढ़ाया । आपके पश्चात डॉ. जे.के.तिवारी सालभर एवं ओंकारप्रसादजी पांडेय ने भी लगभग दस वर्ष समाज के कार्यकर्मो को आगे बढ़ाने में अपना योग्यतानुसार योगदान दिया । आपके कार्यकाल में समाज द्वारा संचालित स्टाफ को स्थाई किया गया । पश्चात पुनः सुरेशचंद्र द्विवेदी पदारूढ़ हुए विजयनगर स्थित विशाल परिसर में भवन के निर्माण, कॉलेज स्थापना इस कार्यकाल की उपलब्धि रही ।